तब हरीश रावत का इतना जनसंपर्क था कि निर्वाचन क्षेत्र के आधे वोटरों को नाम तथा 30 फीसदी को जानते थे उपनाम से।
लोहाघाट – चुनावों में प्रायः लोगों को अपने जनप्रतिनिधि से क्षेत्र में न आने तथा चुनाव जीतने के बाद दुबारा चुनावों के समय ही आने के आरोप लगाते सुना होगा।लेकिन आज के पीढ़ी के जनप्रतिनिधियों को पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत की स्टाइल से सीख लेनी चाहिए भले ही वे किसी भी राजनैतिक दल से जुड़े हुए हो।चुनाव में हार जीत का अलग पक्ष होता है सबसे बड़ी बात यह है कि जनप्रतिनिधि जनता में अपना कितना विश्वास जमा पाता है।आज से 44 वर्ष पहले की ही तो बात है जब हरीश रावत पहली बार लोकसभा जाने के लिए चुनाव मैदान में उतरे थे।हालांकि तब अलमोड़ा – पिथौरागढ़ संसदीय क्षेत्र में यही 4 जिले आते थे लेकिन तब की परिस्थितियां और हुआ करती थी। उस समय मुख्य सड़कों के अलावा ग्रामीण क्षेत्रों में तो ग्यारह नंबर की गाड़ी यानि पैदल ही चलना होता था।हरीश रावत ने गांव गांव रात दिन पैदल चलकर एक कर दिया।उनकी पैदल स्पीड के सामने हर व्यक्ति हार मान लेता था।चुनाव जीतने के बाद हर तीसरे माह पूरे निर्वाचन क्षेत्र का दौरा किया करते थे। जनता की समस्याओं को लेकर आने वाले प्रार्थना पत्रों की प्राप्ति, उस पर की गई कार्यवाही का पत्र व्यक्ति को अवश्य मिला करता था।तब डाक विभाग वाले कहां करते थे कि 25 फीसदी डाक तो अकेले रावत जी के यहां से आती है ।
श्री रावत के कार्यों की स्पीड लगातार बढ़ती गई और उन्होंने इसके बाद 1984 तथा 1989 का चुनाव आसानी से फतह कर लिया और इनका जनसंपर्क लगातार गहराता गया।इसी के साथ इनकी भाषण शैली में भी निखार आता गया और वे ऐसे प्रभावी वक्ता बन गए जिनसे पार पाना विपक्षियों के लिए टेढ़ी खीर बन गया था।वर्ष 1989 में रावत को केवल दो साल ही काम को मिले। इनका राजनैतिक कद बढ़ गया था कि जिसके उपर हाथ रख देते उसका बेड़ा पार हो जाता था। उसी दौरान इंडिया टुडे जैसी राष्ट्रीय पत्रिका द्वारा की गई सर्वे रिपोर्ट प्रकाशित हुई तब इन्हें भारत का सर्वश्रेष्ठ पार्लियामेंटेरियन के साथ अपने निर्वाचन क्षेत्र अलमोड़ा पिथौरागढ़ संसदीय क्षेत्र में तब लगभग साढ़े पांच लाख मतदाता ही हुआ करते थे। पत्रिका ने दावा किया था कि हरीश रावत का इतना जनसंपर्क है कि वे 50 फीसदी लोगों को नाम से तथा 30 फीसदी लोगों को उपनाम से जानने वाले सांसद है।इसके बाद श्री रावत का दुर्भाग्य उनका पीछा करने लगा तथा यहां से उनका संसद जाने वाला मार्ग अवरूद्ध तो हो गया लेकिन उन्होंने लोगों के साथ अपना जनसंपर्क पूर्ववत बनाए रखा। आज भी लोग उनकी जनसंपर्क, पैदल चलने की स्टाइल के अलावा उनके सहयोगी पूर्व काबीना मंत्री महेंद्र सिंह मेहरा(महू भाई) के पैदल चलने का उदाहरण देते नही थकते है।